अज्ञेय को याद करना प्रकारांतर से अपने वर्तमान को ही याद करना है, क्योंकि अज्ञेय अतीत नहीं हो सके, वे सदैव वर्तमान ही रहे। इसका एक कारण तो यह है कि अज्ञेय केवल प्रयोगवाद और नई कविता के प्रवर्तक रचनाकार ही नहीं हैं, बल्कि उन्होंने अपने रचनाकर्म के माध्यम से हिंदी की परंपरागत काव्यधारा को न केवल प्रभावित किया, अपितु उसे व्यापक स्तर पर परिवर्तित भी किया है। अपने सतत् अन्वेषण, चिंतन, मनन और अध्ययन द्वारा अज्ञेय ने कविता को अंतर्वस्तु और शिल्प दोनों ही स्तरों पर समृद्ध किया है। उनका शताब्दी वर्ष मनाते हुए लगता है कि हम किसी बिसरी हुई चीज को नॉस्टैल्जिक होकर याद करने की कोशिश कर रहे हैं पर ऐसा है नहीं। अज्ञेय की चर्चा का मतलब है, बिल्कुल अभी के किसी ताजे रंग को निहारना। बिल्कुल ताजी हवा को महसूस करना। अज्ञेय के रंग इतने ताजे क्यों हैं जाहिर है उनमें कालजयी शास्त्रीयता है। अज्ञेय शाश्वत मूल्यबोध के कवि हैं। हर पल नए हैं। उनकी कविता का नयापन इतना शाश्वत सा हो गया है कि अभी पढ़ो और लगता है कि अभी लिखी गई है। अपनी कविता 'नए कवि का आत्मस्वीकार' में अज्ञेय कहते हैं कि
'यों मैं नया कवि हूँ
आधुनिक हूँ, नया हूँ
काव्य तत्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें
पर प्रतिमा, अरे वह तो जैसी आपको रुचे
आप स्वयं गढ़ें।'
अज्ञेय की यह कविता दरअसल वह बयान है जिसके सहारे हम इस नई काव्य-चेतना को समझ सकते हैं। अज्ञेय की कविता की शास्त्रीयता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष यही है कि वे सत्य की खोज में रत दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए वे राहों के अन्वेषी हैं।
आधुनिक हिंदी कविता बल्कि कहना चाहिए कि समूचे साहित्य के इतिहास पर विचार करते हुए इस एक बात पर प्रायः सहमति सी है कि अज्ञेय को समझे बिना बीसवीं शताब्दी के हिंदी साहित्य के बुनियादी स्वर और उसके आत्मसंघर्ष को समझना मुश्किल है। अज्ञेय हिंदी कविता में आधुनिक संवेदना के प्रस्तावक रचनाकार हैं। उनके रचनात्मक प्रयास जहाँ एक ओर हिंदी को युगीन यथार्थ के नए क्षितिजों को खोलने, समझने के लिए संप्रेरित करते हैं वहीं दूसरी ओर उनका व्यवस्थापक व्यक्तित्व रचनात्मक मूल्यों से कविता को संगठित और संतुलित करने के लिए काव्येतर प्रयासों द्वारा उसका नियमन भी करता है। अज्ञेय की आधुनिकता, परंपरा को अस्वीकार नहीं करती। अज्ञेय अपनी मौलिकता को अक्षुण्ण रखते हुए अपनी काव्य-संवेदना को निरंतर परिष्कृत करते चलते हैं।
अपनी इस प्रयोगधर्मिता को स्पष्ट करते हुए अज्ञेय कहते हैं - 'मेरी पीढ़ी का कवि एक ऐसे स्थल पर पहुँचा जहाँ उसे अपनी पिछली समूची परंपरा का अवलोकन करके अभिव्यक्ति के नए आयाम एवं प्रकार खोजने की आवश्यकता महसूस हुई... कवि ने नए सत्य देखे, नए व्यक्ति सत्य भी और नए सामाजिक सत्य भी और उनको कहने के लिए उसे भाषा का नया अर्थ देने की आवश्यकता हुई। आवश्यकता काव्य के क्षेत्र में भी प्रयोग की जननी है और जिन-जिन कवियों ने अनुभूति के नए सत्यों की अभिव्यक्ति करनी चाही, सभी ने नए प्रयोग किए।' अज्ञेय के अनुसार कम्यूनिकेशन की समस्या ही कवि को प्रयोगोन्मुख करती है - 'जो व्यक्ति का अनुभूत है उसे समष्टि तक कैसे उसकी संपूर्णता में पहुँचाया जाए, यही पहली समस्या है जो प्रयोगशीलता को ललकारती है।'
अज्ञेय ने 'तार सप्तक' की भूमिका एवं 'त्रिशंकु' के निबंधों में प्रयोगधर्मिता से संबंधित कुछ सैद्धांतिक सवाल उठाए हैं -
1. नए काव्य-सत्य / व्यक्ति-सत्य की खोज
2. निर्वैयक्तिकरण और साधारणीकरण की नई समस्या
3. बौद्धिकता का आग्रह
अज्ञेय की साहित्यिक चेतना लगातार इन प्रश्नों का समाधान खोजती रही है। कलाकार की व्यष्टि का उसके सृजन से अलगाव जितना बड़ा होगा उतनी ही उसकी रचना महान होगी। अज्ञेय के सृजन के इस निर्वैयक्तिक सिद्धांत पर पश्चिमी प्रभाव अधिक स्पष्ट है तथापि रस-सिद्धांत के साधारणीकरण से यह दूर नहीं है। साधारणीकरण की मूलभूत तात्विकता को अज्ञेय ने युग संदर्भों के अनुकूल ग्रहण किया है। साधारणीकरण का सिद्धांत है कि रचानाकार को अपनी अनुभूति उसी रूप में व्यक्त करनी चाहिए जिस रूप में वह पाठक से युक्त तादात्म्य स्थापित कर ले। इसका हल अज्ञेय ने सोचा कि कवि के द्वारा संप्रेषित अनुभूति रचनाकार के वैयक्तिक आग्रहों से सर्वथा मुक्त हो -
'मैं कवि हूँ
द्रष्टा, उन्येष्टा
संधाता
अर्थवाह
मैं कृतव्यय
मैं सच लिखता हूँ
लिख-लिख कर सब झूठा करता जाता हूँ।'
अज्ञेय मानते थे कि अनुभूति में भी कवि अपनी बौद्धिक संवेदना का प्रयोग करता है। चिंतन में भी बौद्धिक पुट होता हैं और अभिव्यक्ति में भी बौद्धिक बुनावट होती है। अज्ञेय के इस बौद्धिक आग्रह के कारण कविता में एक स्पष्ट तार्किकता का विकास हुआ है और मानवीय यथार्थ की सही व्यवस्था हो सकी है। अपने आस-पास घटती गतिविधियों की संपूर्णता को ग्रहण करना, अपने विशिष्ट बौद्धिक दृष्टिकोण से प्रायोगिक मूल्यों के साथ उस पर मनन करना और भोक्ता समाज से सम्पृक्त कर सकने के प्रयास द्वारा व्यक्त करना अज्ञेय अनिवार्य मानते हैं। इस प्रकार रचनात्मक अनुभूति, चिंतन और अभिव्यक्ति तीनों बिंदु उनकी रचना प्रक्रिया के विशिष्ट स्तर हैं और इन तीनों बिंदुओं पर अज्ञेय प्रयोगशील हैं।
दूसरी तरफ काव्यभाषा के दृष्टिकोण से भी अज्ञेय की प्रयोगधर्मिता के विभिन्न चेहरे सामने आते हैं। काव्य को रूढ़ आभिजात्य से मुक्त करने के लिए अज्ञेय ने भाषा को नया संस्कार देना चाहा है। इस संदर्भ में कवि ने महसूस किया हे कि लोक-व्यवहार में प्रचलित भाषा संप्रेषण की दृष्टि से बड़ी सशक्त और ईमानदार होती है। इसीलिए अज्ञेय ने लोकभाषा के शब्द और मुहावरों को भाषा में गढ़ना शुरू किया। अज्ञेय का रचनात्मक चिंतन आधुनिक और सर्जनात्मक वहीं हुआ है जहाँ उन्होंने छायावादी अवरुद्ध भाषिक भंगिमा से काव्य को मुक्त किया। हालाँकि अपनी प्रारंभिक कविताओं में अज्ञेय भी छायावादी शब्दावली से दूर नहीं हैं -
'दूरवासी मीत मेरे
पहुँच क्या तुझ तक सकेंगे
काँपते ये गीत मेरे'
अज्ञेय की आधुनिकता उनकी रचना 'हरी घास पर क्षणभर' से प्रारंभ मानी जा सकती है। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से गुजरते हुए अज्ञेय की भाषा पहले तद्भव-देशज शब्दों को अपनाती है और फिर क्रमशः ठेठ होती हुई प्रायः गद्यात्मक हो गई है। उनकी अपेक्षाकृत बाद की रचना 'महावृक्ष के नीचे' में काव्य-भाषा का यह विशुद्ध गद्यात्मक रूप प्रतिफलित हुआ है -
'जियो मेरे आजाद देश के सांस्कृतिक प्रतिनिधियों
जो विदेश जाकर विदेशी नंग को देखने को देखने के लिए
पैसे देकर टिकट खरीदते हो
पर घर लौटकर देशी नंग को ढँकने के लिए
खजाने में पैसा नहीं पाते।'
अज्ञेय में लोकभाषा के प्रचलित शब्दों को तो चुना ही है, जैसे - टटकी, बासन, मुलम्मा, बटुली, सोंधी, कुलिया, साध आदि। लोक-संवेदना से संपृक्त भाषा के प्रयोग से अभिव्यक्ति की सहजता और सांस्कृतिक चेतना से उसका जुड़ाव अक्षुण्ण बना रहता है। शब्दों पर रहस्य का कुहरा लादकर भाषा को गूढ़, और जटिल संस्कार देना अज्ञेय को प्रिय नहीं है। उनका कहना है - 'सही भाषा जब सहज भाषा हो जाए तभी वह वास्तव में सही है।'